बहुधा ऐसा होता है
कोई मनुज यूं असफल होता है,
सुघ-बुध अपनी खो कर
निराश उसका मन होता है;
पर प्रिये,
ईश की ही तो इच्छा है,
जो हुआ वो अच्छा है..
परन्तु फिर,
शायद ही ऐसा होता है
मनुज वो श्रम ऐसा करता है
जग में उजाला सूर्य जैसे भरता है..
निराशा की कालिमा छँटती ह यूं
गृष्म में बादल तरसते है ज्यूं..
माना हे प्रिये,
आकाँक्षा अकारण नहीं होती
श्रम करो परन्तु, खुश रहो..
आखिर सफलता ही जीवन का मंजिल नहीं होती.!
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